इन शाखों पर कभी गुलाबी फूलों की रौनक थी…

“इस पेड़ की शाखों पर कभी हरे पत्तों की बसेरा था, उनके जाने के बाद गुलाबी फूलों की रौनक थी…आजकल उस पेड़ की डालियां सूनी पड़ी हैं।” रोज़ उस राह से गुजरते हुए लगा कि बिना फूलों के भले ही यह पेड़ बेरौनक और बेनूर हो चला है, लेकिन इसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। मैंने अपने बैग से कैमरा निकाला और तस्वीरें क्लिक करने लगा।

इस दौरान कुछ लोगों ने बताया कि इस पेड़ पर साल में सिर्फ़ एक बार पत्ते आते हैं, एक बार फूल आते हैं और फूलों के गिरने के बाद यह पेड़ ऐसी ही हो जाता है…जैसा आजकल लग रहा है। बिल्कुल खाली-खाली और सूना-सूना सा। ज़िंदगी और इस पेड़ के बदलाव की कहानी में एक समानता सी नज़र आती है। हमारी ज़िंदगी में जैसे लोगों का आना-जाना लगा रहता है, वैसे ही इस पेड़ पर पत्ते और फूल आते-जाते रहते हैं।

आजकल इन रास्तों से मेरा एक परिचय सा हो गया है। रोज़-रोज़ गुजरते हुए अब यह जगह अज़नबी सी नहीं लगती है। यूनिवर्सिटी की तरफ़ से आते हुए वही हंग्री फ़ॉर लव वाला विज्ञापन, किराए की साइकिल देने वाला स्टैंड और मेट्रो स्टेशन के पहले लगी मोमोज की दुकानें, उसके पास में पोस्टरों, किताबों और मोबाइल के कवर की भी कुछ एक दुकानें रोज़ाना लगती हैं। यहां से गुजरने वाले लोगों की हुजूम पेड़ के चारो तरफ़ बने चबूतरों पर बैठता है। अपनी-अपनी बातों को साझा करता है और फिर विदा हो जाता है- अपने-अपने गंतव्य की तरफ़। इस जगह पर परिचितों की मौजूदगी के कारण कभी-कभी मैं भी तेज़ी से गुजरते हुे रुक जाता हूँ…बातों के सिलसिलों को साझा करने के बाद फिर आगे बढ़ जाता हूँ रोज़मर्रा की दिनचर्या को पूरा करने के लिए…काम के सिलसिले को आगे बढ़ाने के लिए।

दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का प्रोफ़ेशनलिज़्म और ज़िंदगी के प्रति नज़रिया देखकर अच्छा लगता है। वे ज़िंदगी में कुछ करना चाहते हैं। समय से आत्मनिर्भर होना चाहते हैं और अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले ख़ुद लेना चाहते हैं। लेकिन हर किसी की कहानी एक सी नहीं है। सबकी अपनी-अपनी ज़िंदगी है और अपनी-अपनी कहानी। यहां के प्यार के किस्से हैं, रियल गर्लफ़्रेंड, गर्लफ़्रेड, एक्स गर्लफ़्रेंड और पहले क्रश जैसी उपमाएं हैं तो फ़ैशन का सदाबहरा मौसम भी दिखाई देता है। इसी भीड़ में परंपराओं और आधुनिकताओं का निर्वाह करने वाले युवाओं की मौजूदगी भी है जो ज़िंदगी को अपने अंदाज में जीना चाहते हैं।

नीचे की तस्वीर उसी डाली की है जो ऊपर में सूनी-सूनी दिख रही है। दोनों तस्वीरों का फ़ासला काफ़ी कुछ कहता है। एक तरफ़ रंगों का आकर्षण है तो दूसरी तरफ़ सिर्फ़ शाखाएं हैं। पत्तों और फूल का कोई पता ही नहीं है। प्रकृति भी एक कहानीकार की तरह कितनी कहानियां लिख रही है। अगली बार दिल्ली डायरी में पढ़ते हैं कुछ और लम्हों का जिक्र….।

Leave a comment